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नक्सलवाद का अंतिम अध्याय! बसवा राजू और सुधाकर के एनकाउंटर ने कैसे तोड़ी लाल आतंक की कमर

रायपुर. छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में जहां कभी नक्सलियों की तूती बोलती थी, अब सुरक्षा बलों का डंका बज रहा है। 21 मई 2025 को नक्सल संगठन के महासचिव बसवा राजू और उसके बाद 5 जून 2025 को कुख्यात नक्सली नेता सुधाकर के एनकाउंटर ने माओवादी आंदोलन को बैकफुट पर ला दिया है। ये दोनों नक्सली करोड़ों रुपये के इनामी थे। यह खबर न केवल एक सैन्य जीत की कहानी है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि कैसे भारत सरकार की रणनीति और सुरक्षा बलों का साहस नक्सलवाद को जड़ से उखाड़ने की ओर बढ़ रहा है।

नक्सल संगठन सीपीआई (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य और महासचिव नंबाला केशव राव, उर्फ बसवा राजू, एक ऐसा नाम था, जिसके खौफ से पांच राज्यों की पुलिस थर्राती थी। 1.5 करोड़ रुपये के इनामी बसवा राजू ने 35 साल तक माओवादी संगठन को अपनी रणनीतियों से मजबूत किया। वह न केवल हथियारों की आपूर्ति और विदेशी संपर्कों का मैनेजमेंट देखता था, बल्कि इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस (IED) और गुरिल्ला युद्ध में भी उस्ताद था।

21 मई 2025 को नारायणपुर के अबूझमाड़ जंगल में शुरू हुए ‘ऑपरेशन कगार’ में सुरक्षा बलों ने बसवा राजू सहित 27 नक्सलियों को मार गिराया। इस ऑपरेशन में डीआरजी, एसटीएफ, और सीआरपीएफ की संयुक्त टीमों ने चार जिलों नारायणपुर, बीजापुर, दंतेवाड़ा और कोंडागांव से मिली खुफिया जानकारी के आधार पर किलरकोट पहाड़ी को घेर लिया। घने जंगलों और बांस के घने कवर के बीच, जहां ड्रोन भी साफ तस्वीरें नहीं ले पाते, सुरक्षा बलों ने नक्सलियों को चौतरफा घेरकर इस मिशन को अंजाम दिया।

मुठभेड़ स्थल से बरामद हथियारों तीन एके-47, छह इंसास राइफल्स, रॉकेट लांचर और भारी मात्रा में विस्फोटक ने साबित किया कि नक्सली अब आधुनिक तकनीक और हथियारों से लैस थे। लेकिन सुरक्षा बलों की सटीक रणनीति और साहस ने इस ‘लाल सम्राट’ का अंत कर दिया। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इसे ‘तीन दशकों में पहली बार महासचिव स्तर के नक्सली का खात्मा’ करार दिया, जो नक्सलवाद के खिलाफ एक ऐतिहासिक जीत थी।

बसवा राजू के बाद गुरुवार 5 जून को बीजापुर के इंद्रावती टाइगर रिजर्व में एक और बड़ा झटका नक्सलियों को तब लगा, जब केंद्रीय समिति का सदस्य और 1 करोड़ रुपये का इनामी नक्सली सुधाकर ढेर हुआ। 30 साल से नक्सल संगठन में सक्रिय सुधाकर उन चुनिंदा नेताओं में था, जो संगठन की रणनीतिक और सैन्य गतिविधियों को संभालता था। उसका मारा जाना नक्सलियों के लिए दूसरा बड़ा झटका था।

सुधाकर के खिलाफ बीजापुर में चलाया गया ऑपरेशन भी खुफिया जानकारी पर आधारित था। डीआरजी, एसटीएफ, और कोबरा कमांडोज की संयुक्त कार्रवाई ने नक्सलियों को भागने का कोई मौका नहीं दिया। यह ऑपरेशन इस बात का सबूत है कि सुरक्षा बल अब नक्सलियों के गढ़ में गहरी पैठ बना चुके हैं। सुधाकर का खात्मा न केवल संगठन की नेतृत्व क्षमता को कमजोर करता है, बल्कि नक्सलियों के बीच दहशत भी पैदा करता है।

1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से शुरू हुआ नक्सल आंदोलन, चारू मजूमदार और कानू सान्याल जैसे नेताओं की अगुवाई में एक वैचारिक क्रांति के रूप में उभरा। माओ त्से तुंग की विचारधारा से प्रेरित, नक्सलियों का मकसद था सामंती व्यवस्था को उखाड़ फेंकना और भूमिहीन किसानों को उनका हक दिलाना। लेकिन समय के साथ यह आंदोलन हिंसक हो गया। 2004 में पीपुल्स वार और एमसीसीआई के विलय के बाद बनी सीपीआई (माओवादी) ने नक्सलवाद को और संगठित और खतरनाक बना दिया।

2009 में नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या 223 थी, और हिंसा की घटनाएं 2258 तक पहुंची थीं। नक्सलियों ने न केवल सुरक्षा बलों, बल्कि आम नागरिकों को भी निशाना बनाया। 2010 का दंतेवाड़ा नरसंहार, जिसमें 76 सीआरपीएफ जवान शहीद हुए और 2013 का झीरम घाटी हमला जिसमें 27 लोग मारे गए, बसवा राजू जैसे नेताओं की क्रूर रणनीतियों का नतीजा थे।

नक्सलवाद के खिलाफ भारत सरकार की रणनीति अब दोहरे नजरिए पर आधारित है। पहली सैन्य कार्रवाई और दूसरी विकास। 2014 से 2024 के बीच नक्सल हिंसा में 70% की कमी आई है, और प्रभावित जिलों की संख्या 126 से घटकर 12 रह गई है। सुरक्षा बलों की हताहत संख्या 1851 से घटकर 509 हो गई, जो 73% की कमी दर्शाता है।

सैन्य कार्रवाई: ऑपरेशन प्रहार (2017), ऑपरेशन कगार (2025), और ऑपरेशन ब्लैक फॉरेस्ट जैसे अभियानों ने नक्सलियों के गढ़ को तोड़ा है। खुफिया जानकारी, डीआरजी, और कोबरा कमांडोज की तैनाती ने नक्सलियों को जंगलों में छिपने की जगह नहीं छोड़ी।

विकास की पहल: नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में बजट में 300% की बढ़ोतरी, सड़कों, स्कूलों, और अस्पतालों का निर्माण, और आदिवासी समुदायों को मुख्यधारा में लाने की कोशिशों ने नक्सलियों के प्रचार को कमजोर किया है। वहीं एनआईए और ईडी ने नक्सलियों की फंडिंग पर भी नकेल कसी है।

बसवा राजू और सुधाकर जैसे नेताओं के खात्मे ने नक्सल संगठन की कमर तोड़ दी है। अब संगठन के पास गणपति जैसे कुछ गिने-चुने नेता बचे हैं, जो बीमारी और उम्र के कारण कमजोर पड़ चुके हैं। सुरक्षा बलों का दावा है कि 15 शीर्ष नक्सलियों पर नजर है, जिन पर 8.4 करोड़ रुपये का इनाम है।

नक्सलियों के पास अब न तो पहले जैसी वैचारिक ताकत बची है, न ही संगठनात्मक ढांचा। छत्तीसगढ़, तेलंगाना और महाराष्ट्र में 54 नक्सलियों की गिरफ्तारी और 84 के सरेंडर ने यह साबित किया है कि माओवादी आंदोलन अब टूट रहा है।

केंद्र सरकार ने 31 मार्च 2026 तक देश को नक्सल-मुक्त करने का लक्ष्य रखा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने बार-बार इस प्रतिबद्धता को दोहराया है। अबूझमाड़ जैसे दुर्गम इलाकों में सुरक्षा बलों की पहुंच और स्थानीय लोगों का बढ़ता भरोसा इस लक्ष्य को हकीकत में बदल रहा है। नक्सलवाद, जो हिंसा और आतंक का पर्याय बन चुका था। लेकिन अब, सुरक्षा बलों की रणनीति और सरकार की विकास नीतियों ने इसे इतिहास की किताबों तक सीमित करने की ठान ली है। बसवा राजू और सुधाकर का अंत इस बात का सबूत है कि लाल आतंक का सूरज अब डूब रहा है।

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